जानिए क्योँ दी गई भगत सिंह को फाँसी: शहीद दिवस
जानिए क्यों दी गई भगत सिंह को फांसी की सजा : शहीद दिवस 23 मार्च
भारत में प्रत्येक वर्ष 23 मार्च को उस दिन के रूप में मनाया जाता है जिस दिन भगत सिंह शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर नाम के तीन स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजों द्वारा फांसी दी गई थी इस दिन को शहीद दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
शहीद दिवस क्या है?
मुख्य रूप से 2 तारीख को को शहीद दिवस मनाया जाता है 30 जनवरी और 23 मार्च, 23 मार्च को भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा दी गई थी और 30 जनवरी को नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या की गई थी।
शहीद दिवस मनाने का उद्देश्य उन स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि अर्पित करना है जिन्होंने अपने मातृभूमि के लिए अपना बलिदान दिया
भगत सिंह का व्यक्तित्व कैसा था।
कहा जाता है कि भगत सिंह का जन्म 24 सितंबर 1906 को हुआ लेकिन अन्य कई साक्ष्यों के अनुसार उनका जन्म 27 सितंबर 1907 को एक सिख परिवार में हुआ था।
भगत सिंह को हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भाषा का ज्ञान था।
भगत सिंह का मानना था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जाएगी जो शायद ही उनके जीवित रहने से मुमकिन हो पाए। इसलिए उन्होंने फांसी की सजा सुनाने के बाद भी माफीनामा लिखने से इंकार कर दिया था।
फांसी से पहले भगत सिंह ने अपने भाई कोलतार को एक पत्र लिखा जिसमें लिखा था
"उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नई तर्ज़-ए-ज़फा क्या है।
हमें यह शौक है देखें, सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफा रहे, चर्ख का क्या ग़ीला करें।
सारा जहां अदु सही, आओ मुकाबला करें"।
भगत सिंह को फांसी क्यों दी गई?
वर्ष 2028 में भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु ने और मैं एक ब्रिटिश जूनियर पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी।
उसके बाद निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेंबली में ऐसी जगह बम फेंका जहां कोई मौजूद नहीं था पूरा हॉल धुए से भर गया भगतसिंह वहां से भागने से इंकार कर दिया और वंही ठहर कर "इंकलाब जिंदाबाद। और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद" के नारे लगाने लगे। और साथ लाए हुए पर्चे हवा में उछाल दिए इसके कुछ देर बाद ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
26 अगस्त 1930 को अदालत द्वारा भगत सिंह और उनके अन्य दो मित्रों सुखदेव और राजगुरु को भारतीय दंड संहिता की धारा 129 और 302, विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6F, तथा IPC की धारा 120 के तहत अपराधी सिद्ध किया गया।
7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह उनके दो साथी सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई।
इसके बाद प्रीवी परिषद में भगत सिंह की फांसी की सजा को माफ करने के लिए अपील भी दायर की गई जिसे 10 जनवरी 1931 को रद्द कर दिया गया।
उसके बाद 14 फरवरी 1931 को कांग्रेस अध्यक्ष पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा वायसराय के सामने फांसी की सजा की माफी के लिए अपील दायर की तथा 17 फरवरी 1931 को महात्मा गांधी ने फाँसी की सज़ा माफ करने के लिए वायसराय से बात की लेकिन सज़ा माफ़ी की सभी कोशिश नाकाम रही।
यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हुआ क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उनकी सज़ा को माफ किया जाए।
23 मार्च 1931 को शाम करीब 7:33 पर भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई।
भगत सिंह की आखिरी इच्छा क्या थी?
झांसी के लिए जाने से पहले भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जिस वक्त उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह इस जीवनी को पूरा पढ़ने का समय चाहते हैँ।
ऐसा कहा जाता है कि जब जेल के अधिकारियों ने उनसे कहा कि अब झांसी का समय आ गया है तो उन्होंने कहा "ठहरिए! पहले एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल तो ले"। फिर 1 मिनट बाद कीताब को छत की ओर उछालते हुए बोले "ठीक है अब चलो"।
फाँसी के लिए जाते समय तीनों मस्ती से यह गीत गुनगुना रहे थे। "मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे।
मेरा रंग दे बसंती चोला माय रंग दे बसंती चोला"।
जितेंद्र सान्याल की लिखी किताब "भगत सिंह" के अनुसार फांसी से ठीक पहले भगत सिंह ने कहा
"मिस्टर मजिस्ट्रेट आप बेहद भाग्यशाली हैं। कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत में क्रांतिकारी किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं"।
फाँसी के बाद क्या हुआ?
कहा जाता है कि भगत सिंह और उनके अन्य दो साथियों को फांसी की सजा 24 मार्च 1930 को दी जानी थी लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने जनता के विरोध के डर से उन्हें 1 दिन पहले ही बिना किसी को सूचना दिए फांसी दे दी।
अगले दिन अखबारों के द्वारा यह सूचना लोगों तक पहुंचाई गई कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में पिछले शाम 7:33 पर फांसी दे दी गई ऐसा भी कहा जाता है कि उस शाम में 15 मिनट तक इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूंजते रहे थे।
फांसी देने के बाद तीनों के मृत शरीर के टुकड़े किए गए फिर उन्हें बोरियो में भरकर फिरोजपुर की और ले जाया गया जँहा उनके शरीर को जलाने की कोशिश की गई।
लेकिन लोगों के विरोध के डर से उनके शरीर के अधजले टुकड़ों को सतलज नदी में फेंक कर चले गए इसके बाद गांव वालों ने उन्हें निकाल कर विधिवत तरीके से दाह संस्कार किया।
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